अर्पण--भाग (१) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अर्पण--भाग (१)

रूको...राजहंसिनी!अपने कमरे में जाने से पहले ये बताओ कि कहाँ से आ रही हो?हाँस्टल की वार्डन ने राजहंसिनी से पूछा।।
जी,मैं जरा घूमने चली गई थी,राजहंसिनी बोली।।
इतने रात गए तक घूमना शरीफ़ घर की लड़कियों का काम नहीं है,तुम्हें पता हैं तुम्हारी बड़ी बहन देवनन्दिनी को कुछ पता चल गया था,तो कितना कष्ट होगा उनको,हाँस्टल की वार्डन बोलीं।।
जी,लेकिन अभी तो कोई रात नहीं हुई केवल सात ही बजे हैं,जी पता है कि उनको कष्ट होगा,राजहंसिनी बोली।
तब भी समझ में नहीं आता तुम्हें! तुम्हारे स्वर्गवासी पिता जी सेठ हरिश्चन्द्र अग्रवाल इस शहर के नामीगिरामी बिजमैन थे,तुम्हारे ऐसे करने से उनकी आत्मा को कितना कष्ट पहुँचता होगा,वार्डन बोली।।
ऐसा भी कौन सा गलत काम कर दिया मैनें!बस चाट और गोलगप्पे खाने का मन हो आया तो चली गई बाहर,वैसे भी काँलेज की मैस में इतना बेस्वाद खाना मिलता है कि जानवर भी खाए,राजहंसिनी बोली।।
तो क्या? तुम खिड़की से कूदकर जाओगी,हाँस्टल की दीवार फाँदकर जाओगी,वार्डन बोली।।
तो क्या करूँ?शाम को पाँच बजे के बाद तो इस हाँस्टल के दरवाजे बंद हो जाते हैं,अब ये कोई अलीबाबा और चालिस चोर की गुफ़ा का दरवाजा तो है नहीं कि खुल जा सिम सिम .....खुल जा सिम सिम....कहने से खुल जाएगा,इसलिए चली गई खिड़की से,तो भला इसमें कौन सा अपराध हो गया,राजहंसिनी बोली।।
एक तो गलती करती हो,ऊपर से जुबान लड़ाती हो शरम नही आती,वहाँ बड़ी बहन ने इतना रूपया खर्च करके तुम्हें लड़कियों वाले सबसे महँगे काँलेज में पढ़ने के लिए भेजा ,इतने अच्छी अध्यापिकाओं से तुम्हें ज्ञान अर्जित करने को मिल रहा है,इतने अच्छे हाँस्टल में तुम्हें रहने को मिल रहा है तब भी तुम कोई ना कोई शिकायत करती रहती हो,वार्डन बोली।।
इसे हाँस्टल कहतीं हैं आप! ये तो किसी घोड़ो के अस्तबल से कम नहीं लगता,जहाँ ना अपनी मर्जी से खा सको और ना अपनी मर्जी से रह सको,जहाँ इन्सान को कोई भी आजादी हासिल नहीं,राजहंसिनी बोली।।
ये कैसी बातें कर रही हो तुम! आज ,अभी और इसी वक्त मैं प्रिन्सिपल के पास जाकर तुम्हारी शिकायत करती हूँ,गलती की गलती करती हो और बतमीजी भी कर रही हो,तुम्हारी इतनी हिम्मत,अब देखना तुम्हारा क्या हाल होता है? वार्डन बोली।।
हाँ....हाँ....जाओं जिससे जो कहना है कह दो,मैं किसी से नहीं डरती,राजहंसिनी बोली।।
हाँ..तो कल देख लेना,वार्डन बोली।।
हाँ! देख लूँगी,राजहंसिनी बोली।।
कल सब अकड़ निकल जाएगी और इतना कहकर वार्डन चली गई।।
अब राजहंसिनी सोच में पड़ गई कि कल क्या होगा? उसे तो कल बहुत डाँट पड़ने वाली है और यही सोचते सोचते वो अपने कमरे में पहुँची और यही सोचते सोचते उसे नींद आ गई।।
सुबह हुई,चिड़ियांँ चहचहाने रही थीं,सूरज की किरण कमरें की खिड़की से राजहंसिनी के बिस्तर तक पहुँची और उसके सुन्दर से मुखड़े को ढ़क लिया,सूरज की किरण पड़ते ही राजहंसिनी ने आँखें खोलीं और अँगड़ाई लेते हुए करवट ली।।
तभी उसे याद आया कि कल रात क्या हुआ था? वार्डन से कितनी डाँट पड़ी थी उसे और अब तक तो वार्डन ने मेरी सारी बातें प्रिन्सिपल से कह दी होंगीं,अब तो मेरी ख़ैर नहीं,डाँट तो ठीक है लेकिन प्रिन्सिपल आँफिस के दरवाज़े से जब मेरे साथ पढ़ने वाली लड़कियांँ मुझे डाँट खाते हुए सुनेगीं तो कैसे खी...खी...करते हुए हँसेंगीं और जब मैं बाहर आऊँगी तो वो सब मेरा कितना मज़ाक बनाएगीं?
कोई ये थोड़े ही मानेगी कि मैं बाहर चाट और गोलगप्पे खाने गई थी सब तो यही कहेंगीं कि मैं किसी लड़के से मिलने गई थी,ये तो मेरी शामत आ गई,अब तो हाँस्टल से भाग जाने में ही भलाई है,राजहंसिनी ने सोचा।।
लेकिन भागकर जाऊँगी कहाँ? दीदी को पता चल गया तो फिर से हाँस्टल भेंज देंगीं,उन्हें पता है कि मेरा मन पढ़ने लिखने में नहीं लगता फिर भी मुझे वो विलायती मेमसाब बनाना चाहतीं हैं,लेकिन अब करूँ तो क्या करूँ?
ऐसा करती हूँ कि मैं बुआ के यहाँ चली जाऊँगी और दीदी को टेलीफोन करके कह दूँगीं कि मैं हाँस्टल से भाग आई हूँ,मुझसे इतनी कड़ी पाबन्दी नहीं सही जाती,देखों तो मैं सूखकर काँटा हो गई हूँ,मैस में अच्छा खाना नहीं मिलता,मैं हाँस्टल में नहीं रह सकती,मेरी बात सुनकर दीदी का दिल जरूर पसीज जाएगा और वो मुझे घर बुला लेगी।।
लेकिन अभी तो मुझे यहाँ से किसी भी हाल में भागना होगा,मेन गेट से तो भाग नहीं सकती,वैसे ही भागना पड़ेगा जैसे कल भागी थी,कमरें की खिड़की से और हाँस्टल की दीवार फाँदकर बस इसके सिवा और कोई चारा नहीं,
फटाफट तैयार होती हूँ पहले और राजहंसिनी तैयार होकर चल पड़ी,पहले वो अपने कमरे की खिड़की से बाहर की ओर कूदी फिर मैदान को पार करते हुए ,बेंच पर चढ़कर दीवार पर चढ़ गई,उसने पहले अपनी एक चप्पल उतारकर फेंक दी फिर दूसरी और कूद पड़ी उस तरफ....
उसने देखा नहीं था और रोजाना की तरह अन्दाजे के साथ कूद पड़ी लेकिन इस बार वो दीवार से टेक लगाएं बैठे एक शख्स पर जा गिरी.....
और वो शख्स डरते हुए बोला.....
बचाओ....बचाओ....आसमान गिर रहा है....
ये सुनकर दो चार लोंग वहाँ आ भी पहुँचे और नज़ारा देखकर हँस पड़े....
और कुछ तो उस शख्स की चुटकी लेते हुए बोलें.....
जनाब! आपके सामने आसमान से शहजादी आपकी झोली में गिर पड़ी और आप डरकर भाग रहे हैं.....
अब क्या कहूँ ? श्रीमान! पहले आसमान से मेरी झोली में एक चप्पल आ गिरी,फिर दूसरी आ गिरी,मुझे जब तक कुछ समझ आता तो ये शहजादी साहिबा आ गिरीं,मैं ठहरा सीधा सादा इन्सान डर ही जाऊँगा ना! मुझे लगा आसमान गिर पड़ा, उस शख्स ने जवाब दिया।
तभी भीड़ में से एक ने कहा____
चलो भाई! यहाँ से,यहाँ तो कुछ और ही कहानी चल रही हैं और सारे लोग वहाँ से हँसते हुए चले गए।।
तभी राजहंसिनी गुस्से से बोली____
क्यों ?जनाब! क्या मैं आपको आसमान दिखती हूँ॥
ना !शहज़ादी साहिबा! आसमान भला साड़ी थोड़े ही पहनता है और ना ही लम्बी लम्बी दो चोटियाँ बनाता है,उस शख्स ने कहा।।
आपके कहने का मतल़ब क्या है? राजहंसिनी ने गुस्से से पूछा।।
कुछ नहीं शहज़ादी साहिबा! भला आप आसमान कैसे हो सकतीं हैं,बिजली जरूर हो सकतीं हैं क्योंकि बार बार आप ऐसे कड़क जो रहीं हैं,उस शख्स ने कहा।।
ये क्या कह रहे हैं ?आप!जुबान सम्भालकर बात कीजिए, जनाब! राजहंसिनी बोली।।
मेरी जुबान तो सम्भली हुई है शाह़जादी साहिबा! मेरी जगह कोई और होता तो .....उस शख्स ने कहा।।
कोई और होता तो....राजहंसिनी बोली।।
कुछ नहीं शाह़जादी साहिबा! भला एक बेरोजगार निठल्ला आदमी भला कर भी क्या सकता है?उस शख्स ने कहा।।
क्या कह रहे हो? बेरोजगार!राजहंसिनी बोली।।
जी हाँ,जेब से फकीर हूँ,हाथ में फूटी कौड़ी भी नहीं,शाम को घर जाने में भी शरम आती है,विधवा बहन और भाँजे का पेट पालने के भी काब़िल नहीं हूँ,मेरे इतना पढ़े लिखें होने का भला क्या फायदा जब मैं उन्हें दो रोटी भी नहीं खिला सकता,उस शख्स ने कहा।।
मेरी नज़र में तो तुम शहज़ादे हो,तुम गरीब नहीं हो,अच्छा देखों पेंन है तुम्हारे पास,राजहंसिनी ने पूछा।।
हाँ! हैं ,उस शख्स ने कहा।।
और कागज है,राजहंसिनी ने पूछा।।
जी वो तो नहीं हैं,शख्स ने कहा।।
अच्छा ,ठीक है अपनी हथेली लाओ,राजहंसिनी बोली।।
लेकिन क्यों? उस शख्स ने पूछा।।
लाओ तो और राजहंसिनी ने उस शख्स की हथेली पर कुछ लिखते हुए कहा___
इस पते पर चले जाना,तुम्हें जुरूर नौकरी मिल जाएगी।।
जी बहुत बहुत धन्यवाद,उस शख्स ने कहा।।
ठीक है अब चलती हूँ,शाह़जादे! राजहंसिनी बोली।।
ठीक है शाह़जादी साहिबा!
और इतना कहकर दोनों अपने अपने रास्ते चले गए____

दरवाज़े पर दस्तक हुई___
एक महिला ने दरवाज़ा खोला____
तू आ गया श्रीधर! नौकरी मिली,उस महिला ने दरवाज़ा खोलते ही कहा।।
ना! सुलक्षणा जीजी! आज भी खाली हाथ लौटा हूँ,लेकिन किसी ने एक पता दिया है,कल उस पते पर जाकर नौकरी के लिए कहता हूँ,श्रीधर बोला।।
ठीक है तू हाथ मुँह धो ले मैं खाना लगाती हूँ,सुलक्षणा बोलीं।।
तभी भीतर से भागते हुए बबलू आकर सीधे मामा की गोद में चढ़ते हुए बोला___
मामा! मेरे लिए चाबी वाला खिलौना लाए।।
ना! बेटा ! आज भी ना ला पाया लेकिन कल जरूर ले आऊँगा,श्रीधर बोला।
जाओ हम तुमसे नहीं बोलते,बबलू बोला।।
ना बबलू बेटा! मामा से ऐसे नहीं रूठते,कल मामा जरूर से अपने बबलू के लिए चाबी वाला खिलौना लाएंगे,देख आज तो मामा ने अपने कान भी पकड़ लिए,श्रीधर बोला।।
सच,कहते हो मामा! कल तुम मेरे लिए चाबी वाला खिलौना लाओगे,बबलू ने पूछा।।
हाँ! किशनकन्हैया! कल तेरा मामा तेरे लिए चाबी वाला खिलौना जरूर लाएगा,श्रीधर बोला।।
अच्छा! अब तेरी बकबक बंद हो गई हो तो मामा को खाना खाने दे,सुलक्षणा बोली।।
मैं भी खाना खाऊँगा,बबलू बोला।।
हाँ तेरे लिए भी लाई हूँ,सुलक्षणा बोली।।
ये क्या ?माँ! तुम रोज रोज दाल भात पका देती हूँ,ना तरकारी होती है साथ में और ना चोखा,मुझे नहीं खाना ये दाल भात,बबलू बोला।।
नखरे मत कर चुप खा लें,मेरे पास इतने पैसे नहीं है कि तेरे लिए रोज छप्पन भोग पकाऊँ,सुलक्षणा बोली।।
जीजी! इतना मत बिगड़ो बच्चे पर,बच्चा ही तो है,नहीं समझता बातों को,लेकिन तुम तो बड़ी हो ना! श्रीधर बोला।।
तो क्या करूँ? श्री!माँ बाप बचपन में छोड़कर चले गए और भरी जवानी में पति को भी भगवान ने अपने पास बुला लिया,आखिर इंसान ही तो हूँ कोई देवी तो नहीं जो आँखें बंद करके सब सहती जाऊँ,सुलक्षणा बोली।।
धीरज रखो जीजी!जरा संयम से काम लो ,जब अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगें और हमारा बबलू बहुत अच्छा बच्चा है,देखना कैसे ये दाल भात चुटकियों में खतम करता है,कल मैं बबलू के लिए बाजार से समोसे,कचौरियाँ और इमरती लाऊँगा,बबलू को बहुत पसंद है ये,हैं ना ! बबलू बेटा!,श्रीधर बोला।।
सच कहते हो मामा! कल तुम ये सब चींजें लाओगें तो मैं फटाफट से दाल भात खतम कर देता हूँ,देखना तुमसे पहले खा लूँगा,बबलू बोला।।
और ये सब देखकर श्रीधर और सुलक्षणा की आँखें भर आईं.....

क्रमशः___
सरोज वर्मा....